
By Fatina Abu Mustafa (Translated by Shahbaz Rehmani)
“खून से मेरा चेहरा ढक गया था। मेरे बाल जल रहे थे। मेरे जलते हुए बाल ही वह रोशनी थे जो मैं देख पा रही थी,” तसनीम ने कहा, जब उसने उस रात को याद किया जिस रात उसकी दुनिया बिखर गई।
वह कहती है –
“मैं इस जंग का कोई अंत सोच भी नहीं सकती। मैं यह भी कल्पना नहीं कर सकती कि शांति कैसी होगी, क्योंकि इस युद्ध ने ग़ज़ा के लोगों से सब कुछ छीन लिया है, यहाँ तक कि उनकी आँखों की रौशनी भी।”
कुछ ही महीने पहले, 19 वर्षीय तसनीम अपनी तवजीही (फ़लस्तीन की अहम हाई स्कूल परीक्षा) की तैयारी कर रही थी। उसके सपनों में स्कॉलरशिप, यूनिवर्सिटी और नाकेबंदी से परे एक नई ज़िंदगी थी। लेकिन अब वह अपनी नज़रों को बचाने के लिए संघर्ष कर रही है, अपनी बहन और पिता के ग़म में डूबी हुई है और विस्थापन शिविरों में भी अपने स्कूल की किताबों को साथ लेकर घूम रही है।

यह सिर्फ उसकी नहीं, बल्कि हज़ारों छात्रों की कहानी है। ग़ज़ा के शिक्षा मंत्रालय के मुताबिक़, नरसंहार शुरू होने के बाद से अब तक 15,553 स्कूल छात्र और 1,111 विश्वविद्यालय छात्र मारे जा चुके हैं। इसके अलावा 23,411 स्कूल बच्चे और 2,317 विश्वविद्यालय छात्र घायल हुए, जिनमें से कई स्थायी रूप से विकलांग हो गए। ग़ज़ा की नई पीढ़ी के लिए युद्ध ने न सिर्फ़ स्कूल-कक्षाएँ बल्कि उनके शरीर और भविष्य भी तबाह कर दिए हैं।
वह रात जिसने सब कुछ बदल दिया
10 अक्टूबर 2023, रात 2:30 बजे, बानी सुहैला।
तस्नीम और उसकी बहन हदील खिड़की पर खड़ी थीं, जब असफ़ूर स्टेशन के पास गोलाबारी से सड़क चमक उठी।
“अचानक धुआँ, धूल और आग ने मुझे अंधा कर दिया,” तस्नीम कहती है।
“खून से मेरा चेहरा भीग गया। मेरे बालों में आग लग गई। मैं देख नहीं पा रही थी। सांस नहीं ले पा रही थी। मेरे जलते हुए बाल ही मेरे चारों ओर की एकमात्र रौशनी थे।”
जब उसने पीछे देखा तो हदील आग की लपटों में ज़मीन पर गिरी हुई थी। तस्नीम रो पड़ी – “वह पल मेरी ज़िंदगी का सबसे कठिन पल था।”
सीढ़ियों से नीचे भागते हुए उसके पैरों में टूटी कांच की किरचें चुभ गईं। फिसलकर उसका पैर टूट गया। बाहर पूरा आसमान लाल था और गलियाँ जल रही थीं।
“मैं सड़क पर बैठकर सिर पकड़कर रो रही थी… बस चाहता थी कि यह ख़्वाबनुमा डरावना सपना ख़त्म हो जाए।”
लगातार बढ़ता ग़म
तस्नीम को लगा कि उसका पूरा परिवार मर चुका है। उसने शहादत की दुआ पढ़ी और मौत का इंतज़ार करने लगी। लेकिन उसके माता-पिता ज़िंदा थे। उसकी माँ ने उसे सहलाते हुए सँभालने की कोशिश की।
“माँ, मेरा चेहरा बिगड़ गया है। मैं कुछ नहीं देख पा रही, सिर्फ़ खून है,” तस्नीम चिल्लाई।
कुछ ही देर बाद उन्हें असहनीय सच्चाई का पता चला – हदील शहीद हो चुकी थी।
उसकी चोटें बेहद गंभीर थीं: फूटा हुआ नेत्रगोलक, रेटिना फट जाना और गहरे कट जिन्हें टाँके लगे। संसाधनों से खाली पड़े ग़ज़ा के अस्पतालों ने घंटों बाद उसका इलाज किया।
लेकिन त्रासदी यहीं नहीं थमी। तीन दिन बाद उसके पिता अदली बरका भी एक इस्राइली हमले में शहीद हो गए।
“उस पल मुझे लगा कि मैंने अपनी पूरी नज़रों और उम्मीदों को खो दिया,” तस्नीम ने कहा।
नज़र बचाने की जंग
11 अक्टूबर को एक निजी डॉक्टर ने चेतावनी दी कि तुरंत ऑपरेशन न हुआ तो वह पूरी तरह अंधी हो जाएगी। ग़ज़ा के ढहते स्वास्थ्य तंत्र के बीच डॉक्टरों ने बिना बेहोशी के ही सर्जरी की, सिर्फ़ धागों से उसकी आँख को जोड़ने की कोशिश की।
ग़ज़ा के स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक़ अब तक लगभग 1,500 लोग अपनी नज़र खो चुके हैं और करीब 4,000 लोग अंधे होने के ख़तरे में हैं, क्योंकि इस्राइल दवाइयाँ और मेडिकल उपकरण रोक रहा है।
तस्नीम से कहा गया कि वह रोए नहीं, तनाव न ले, अपनी आँख पर ज़ोर न डाले। लेकिन कैसे न रोती? उसने अपनी बहन और पिता को दफ़नाया था और लगातार बमबारी के बीच जी रही थी।
मलबे के बीच सपने
3 नवंबर 2023 को हफ्तों की देरी के बाद आखिरकार तस्नीम को इमरजेंसी सर्जरी के लिए मिस्र ले जाया गया। लेकिन तब तक उसकी दाहिनी आँख अंधी हो चुकी थी। डॉक्टरों ने बची हुई नज़र बचाने के लिए सिलिकॉन ऑयल डाला।
उसे मिस्र में ही रुककर इलाज जारी रखने की सलाह दी गई, मगर वह ग़ज़ा लौट आई। छोटे भाई-बहन अब भी वहीं थे और पिता की मौत के बाद वह अपनी माँ को अकेला नहीं छोड़ सकती थी। उसने आराम और इलाज छोड़कर अपने परिवार को चुना।
आज वह एक टेंट में रहती है। सिरदर्द, आँखों में दर्द और बची हुई नज़र के लगातार कमजोर होने से जूझ रही है। फिर भी वह पढ़ाई कर रही है। हर बार जब उसे विस्थापन झेलना पड़ा – बानी सुहैला से रफ़ाह, फिर देर अल-बला – वह अपनी किताबें साथ लेकर भागी।
“डॉक्टरों ने कहा कि पढ़ने से मेरी आँख और बिगड़ सकती है। लेकिन मैंने फिर भी किताबें उठाईं। वे मेरी आख़िरी उम्मीद हैं।”
तस्नीम के लिए किताबें सिर्फ़ काग़ज़ नहीं, बल्कि उसकी जिद हैं। इस नरसंहार में जिसने उससे लगभग सब कुछ छीन लिया, किताबें उसका वह सपना हैं जिसे वह छोड़ने को तैयार नहीं।
ज़ख्म जो दिखाई नहीं देते
शारीरिक चोटों से बढ़कर तस्नीम का दर्द उसका आत्मसम्मान है।
“जब मैं आई-पैच पहनकर बाहर जाती हूँ तो बहुत शर्म महसूस करती हूँ। मैं भी तो और लड़कियों की तरह जीना चाहती हूँ,” उसने कहा।
उसकी माँ ग़दा रोज़ उसे कहती हैं कि वह अब भी खूबसूरत है। लेकिन भावनात्मक घाव ऐसे माहौल में भरना असंभव है जहाँ न सुरक्षित जगह है, न मेडिकल मदद, न ट्रॉमा से उबरने का सहारा।
दुनिया से गुज़ारिश
जब तस्नीम से पूछा गया कि अब वह क्या चाहती है, उसने कहा:
“मैं चाहती हूँ कि यह जंग ख़त्म हो। यह दर्द रुक जाए। मुझे अपनी आँख का सही इलाज मिले और मैं भी दूसरी लड़कियों की तरह अपनी पढ़ाई जारी रख सकूँ। मैं अपनी आँखें नहीं खोना चाहती – मुझे उनकी उतनी ही ज़रूरत है जितनी एक बच्चे को अपनी साँसों की होती है।”
तस्नीम की कहानी उन हज़ारों में से एक है। ग़ज़ा के बच्चे सिर्फ़ बमों से नहीं मारे जा रहे, बल्कि भूखे रखे जा रहे हैं, अंधे किए जा रहे हैं और सीखने का हक़ उनसे छीना जा रहा है।
“हमारी जगह ख़ुद को रखकर देखो,” तस्नीम ने एक आँख में आँसू भरकर कहा।
“तुम एक मिनट भी ऐसे नहीं जी सकते जैसे हम जी रहे हैं।”