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विचार: आपातकाल से आज तक, आज़म का सफ़र : “मुझे मार दिया जाए, मेरी यूनिवर्सिटी में बुलडोज़र चला दिया जाए फिर भी एक यूनिवर्सिटी के फाउंडर के रूप में मेरी शिनाख्त होगी “

“मुझ पर किताबों की चोरी का आरोप लगाया गया है, अगर चोरी करके कोई गरीब बच्चों को पढ़ाता है तो ऐसे चोरों की ज़रूरत हिन्दुस्तान को है।”

ये शब्द उत्तर प्रदेश के दिग्गज नेता मुहम्मद आज़म खान के हैं—एक ऐसा नाम जिसने आपातकाल की सख़्त परछाई से निकलकर भारतीय राजनीति में अपनी अलग पहचान बनाई।

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शुरुआती सफ़र: आपातकाल से राजनीतिक अखाड़े तक

आजम खान 1970 के दशक में तब सुर्खियों में आए जब उन्होंने इंदिरा गांधी के आपातकाल का मुखर विरोध किया।

  • आपातकाल के दौरान उन्हें उस कालकोठरी में डाला गया, जहां इंसानों को रखने की मनाही थी।
  • 17 महीने की लंबी कैद के बाद भी वे झुके नहीं और पहले ही चुनाव में जनता पार्टी के टिकट पर मैदान में उतरे, भले हार का सामना करना पड़ा हो।

यह हार उनके हौसले को तोड़ नहीं सकी। बल्कि, यहीं से उन्होंने रामपुर के नवाब परिवार की राजनीतिक पकड़ को चुनौती देने का बीड़ा उठाया।


नवाबों के दबदबे को चुनौती

रामपुर की राजनीति दशकों तक नवाब परिवार के कब्जे में रही।

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  • ज़ुल्फ़िकार अली खान ने 1967 से 1989 तक और उनकी पत्नी नूर बानो ने 1996 व 1999 में संसद की सीट जीती।
  • 1980 में आज़म खान ने रामपुर विधानसभा सीट से चुनाव जीता और मजदूर वर्ग व निचले तबके को संगठित करना शुरू किया।

मौलाना मोहम्मद अली जौहर के विचारों से प्रेरित होकर उन्होंने गरीबों को राजनीतिक शक्ति दी और नवाबी प्रभाव को कमजोर कर दिया।


चार दल, कई जीतें – और सपा के स्तंभ

1980 से 1992 के बीच आज़म खान ने चार अलग-अलग दलों से चुनाव जीतकर खुद को सिद्ध किया।
1992 में समाजवादी पार्टी बनी तो वे मुलायम सिंह यादव के सबसे भरोसेमंद साथी बन गए।

  • लगातार जीत, तीक्ष्ण भाषण कला और मज़बूत जनाधार ने उन्हें यूपी का सबसे प्रभावशाली मुस्लिम नेता बना दिया।
  • 2003 में उन्होंने मौलाना अली जौहर ट्रस्ट की स्थापना की और रामपुर में यूनिवर्सिटी की नींव रखी—यह उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती है।

सत्ता परिवर्तन और आरोपों की बौछार

2017 के बाद जब उत्तर प्रदेश की सत्ता बदली, तो वही आज़म खान जिन्हें कभी “रामपुर का शेर” कहा जाता था, अचानक किताब चोर, मुर्गी चोर, बकरी चोर तक कहे जाने लगे।

  • उन पर 100 से अधिक मुकदमे दर्ज हुए।
  • पत्नी व बेटे तक को कानूनी उलझनों में घसीटा गया।

आलोचकों का मानना है कि यह सब राजनीतिक प्रतिशोध का हिस्सा था। अदालतों ने कई मामलों को खारिज भी किया, जिससे यह धारणा और मज़बूत हुई कि उनके खिलाफ कार्रवाई द्वेषपूर्ण थी।


समाजवादी पार्टी में बदलते समीकरण

मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद, समाजवादी पार्टी में नई पीढ़ी का दौर शुरू हुआ।

  • अखिलेश यादव के नेतृत्व में पार्टी ने आज़म खान को धीरे-धीरे किनारे कर दिया।
  • जेल में रहते हुए उन्हें जिस तरह से समर्थन से वंचित किया गया, उसने उनके राजनीतिक करियर को नया मोड़ दे दिया।

आज़म खान की प्रतिक्रिया

जेल से रिहा होने के बाद उनका दर्द छलक पड़ा:

“मैं गूंगा हूं, मेरे मुँह में जुबां नहीं है, मैं अंधा हूं, मेरी आँखों में रोशनी नहीं है, मेरा ज़ेहन खाली है क्योंकि मेरी बुद्धि नहीं है। इतना फ़ना कर दिया गया हूं और कितना किया जाऊँगा… कोई बता सके तो बताए। हालांकि इतना कहूँगा मेरे पास ईमान है।”

ये शब्द केवल व्यक्तिगत वेदना नहीं, बल्कि भारतीय राजनीति में गिरते नैतिक स्तर की ओर भी इशारा करते हैं।


निष्कर्ष: राजनीति का कड़वा सच

आज़म खान से सहमत होना ज़रूरी नहीं, लेकिन उन्हें नज़रअंदाज़ करना असंभव है।

  • अदालत तय करेगी कि वे दोषी हैं या नहीं।
  • लेकिन यह स्पष्ट है कि भारत की राजनीति में द्वेष और प्रतिशोध किस हद तक जा सकता है।

उन पर लगे आरोप चाहे कितने भी विचित्र क्यों न हों, उनकी सियासी विरासत और जनाधार आज भी कायम है।
आज़म खान सिर्फ़ एक नेता नहीं, बल्कि उस सच्चाई के प्रतीक हैं कि सत्ता बदलते ही सियासी समीकरण किस तरह इंसान को अपराधी बना देते हैं।

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