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इबादतगाहों को नापाक नजरों से बचाने वाले ‘प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट’ के भविष्य पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई आज से शुरु

देश की इबादतगाहों को साम्प्रदायिक ताकतों से महफूज रखने वाले में प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट (Places of Worship Act) के भविष्य पर आज से सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू हो रही है.

देश में धार्मिक स्थलों को लेकर विवादों की सूची लगातार बढ़ती जा रही है। अयोध्या, मथुरा और काशी जैसे प्रमुख स्थानों के विवादों के बाद अब भोजशाला, संभल, बदायूं, अजमेर और अन्य स्थानों पर भी धार्मिक स्थलों के स्वरूप को लेकर सवाल उठने लगे हैं। इन विवादों के केंद्र में प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट (Places of Worship Act) है। इस कानून की संवैधानिक वैधता को लेकर आज सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू हो रही है।

सुप्रीम कोर्ट में आज से शुरू होगी सुनवाई

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर सुनवाई के लिए विशेष बेंच का गठन किया है, जिसकी अध्यक्षता मुख्य न्यायधीश संजीव खन्ना करेंगे। यह सुनवाई आज दोपहर 3.30 बजे से शुरू होगी। गौरतलब है कि मार्च 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को इस एक्ट पर नोटिस दिया था, लेकिन अब तक केंद्र सरकार ने अदालत में अपना पक्ष नहीं रखा है।

यह मामला 1991 के प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली लंबित याचिकाओं के आधार पर महत्वपूर्ण मोड़ ले रहा है।

क्या है प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट

प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार के दौर में लागू हुआ था। इसका उद्देश्य भारत के किसी भी धार्मिक स्थल के स्वरूप को 15 अगस्त 1947 की स्थिति के अनुसार बनाए रखना है। इसके अनुसार, अगर किसी स्थान पर मंदिर था, मस्जिद थी या गिरिजाघर था, तो उसका स्वरूप किसी भी हाल में बदलने की अनुमति नहीं होगी।

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हालांकि, इस कानून में बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद को अपने दायरे से बाहर रखा गया था, क्योंकि यह मामला उस समय अदालत में विचाराधीन था। एक्ट के उल्लंघन पर तीन साल तक की जेल और जुर्माने की भी सजा का प्रावधान है।

कौन-कौन हैं याचिकाकर्ता?

इस मुद्दे पर कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में पहले ही दाखिल हो चुकी हैं। इनमें प्रमुख नाम हैं:

  1. अश्विनी कुमार उपाध्याय: उन्होंने 2020 में याचिका दाखिल की थी। उनका कहना है कि प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट की वजह से हिंदू, जैन, बौद्ध और सिख धर्मों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है।
  2. सुब्रमण्यम स्वामी और अन्य संगठनों ने भी इसी तरह की याचिकाएं दाखिल की हैं।

इन याचिकाओं में यह तर्क दिया गया है कि एक्ट के सेक्शन 2, 3 और 4 संविधान के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं।

वहीं दूसरी ओर, जमीयत उलमा-ए-हिंद, सीपीएम और राजद जैसे दल भी कोर्ट में इस एक्ट के समर्थन में याचिकाएं दाखिल कर चुके हैं। उनका दावा है कि इस कानून की वजह से भारत में धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक सौहार्द्र को सुरक्षित रखा जा सकता है।

क्या हो सकता है आगे?

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से कई बातों का निर्धारण होगा:

  • अगर एक्ट की संवैधानिक वैधता बरकरार रहती है, तो इसका अर्थ होगा कि किसी भी धार्मिक स्थल का स्वरूप 15 अगस्त 1947 की स्थिति में ही रहेगा।
  • यदि कोर्ट इस एक्ट को असंवैधानिक मानती है, तो इससे कई विवादित स्थानों में मंदिर और मस्जिदों के स्वरूप को लेकर नई बहसें शुरू हो सकती हैं।

सिर्फ एक्ट नहीं बदल जाएगा देश का भविष्य

प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट की संवैधानिक वैधता पर बहस का असर केवल अदालतों तक ही सीमित नहीं होगा। इस एक्ट पर फैसला धार्मिक सह-अस्तित्व और सामाजिक सौहार्द्र को भी प्रभावित कर सकता है।

इस मुद्दे पर मुस्लिम पक्ष का कहना है कि धार्मिक स्थलों का सर्वेक्षण और उनके स्वरूप को लेकर विवाद न केवल धर्मनिरपेक्षता को चुनौती देंगे, बल्कि सामाजिक सौहार्द्र को भी खतरे में डाल सकते हैं।

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