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जबलपुर–दमोह में बाप-दादा की क़ब्रें गवाही दे रही हैं कि हम भारतीय हैं — रोहिंग्या होने के आरोपों से आहत घुमक्कड़ जाति ने मांगा इंसाफ । प्रशासन को सौंपा पीढ़ियों का रिकॉर्ड

जबलपुर। हमने सदियों से यही हैं, हमने इस देश की मिट्टी में अपने बुज़ुर्गों को दफनाया है, अपने बच्चों को इसी ज़मीन पर पाल रहे हैं… फिर हमें विदेशी क्यों कहा जा रहा है?” यह दर्द और सवाल है दशकों से जबलपुर में रह रहे घुमक्कड़ कबीले का, जिसकी पीढ़ियां मध्य प्रदेश की धरती पर गुजर गईं, लेकिन आज वही लोग अपनी पहचान बचाने के लिए दर-दर भटकने को मजबूर हैं। जिले में रह रहे घुमक्कड़ जाति के लोगों ने रोहिंग्या और बांग्लादेशी कहकर प्रताड़ित किए जाने का आरोप लगाते हुए जिला अधीक्षक पुलिस सहित अन्य विभागों को भावुक ज्ञापन सौंपा है।

कबीले के मुखिया अमूर खां पिता नत्थू खां का कहना है कि वे पिछले 70  वर्षों से मध्य प्रदेश के अलग-अलग जिलों में रहकर ईमानदारी से जीवन यापन करते आ रहे हैं। बावजूद इसके, आज उन्हें संदेह की नजर से देखा जा रहा है, जिससे पूरा कबीला खुद को असुरक्षित महसूस कर रहा है।

घूमते रहे, पर देश नहीं छोड़ा

अमूर खां बताते हैं कि उन्होंने अपने बाप-दादा को हमेशा घूमते हुए ही देखा। उनका परंपरागत काम बकरा–बकरी पालन और मजदूरी रहा है। पढ़ाई-लिखाई से दूर रहने के बावजूद उन्होंने कभी कानून नहीं तोड़ा। “हम सीधे-साधे लोग हैं, हमारे 60 70 साल के इतिहास में न कोई अपराध है, न कोई केस,” वे कहते हैं।

वन विभाग द्वारा जंगलों में चराई पर रोक लगाए जाने के बाद करीब 25 – 30 साल पहले उनका कबीला जबलपुर जिले में आकर रहने लगा। लेकिन आज यहीं उन्हें सबसे बड़ा डर सताने लगा है पहचान खोने का डर।

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जहां ठहरे, वहां खुद को दर्ज कराया

कबीले के लोगों का कहना है कि वे जहां भी ठहरे, सबसे पहले गांव की पंचायत में जाकर अपनी पूरी जानकारी दर्ज कराते थे। कितने पुरुष, कितनी महिलाएं, कितने बच्चे और कितने पशु—सब कुछ सरपंच के पत्र में लिखा जाता था। उनका दावा है कि उन्होंने कभी छिपकर रहने की कोशिश नहीं की, फिर भी आज उन पर शक किया जा रहा है।

दमोह की मिट्टी में दफन हैं पिता-दादी

अमूर खां की आवाज भर्रा जाती है जब वे अपने पिता और दादी का जिक्र करते हैं। वे बताते हैं कि जब वे सिर्फ 10 साल के थे, तब उनके पिता नत्थू खां का दमोह में इंतकाल हो गया था। आज भी उनकी मजार वहीं मौजूद है। उनकी दादी भी दमोह के पास हनोतिया गांव के समीप दफन हैं।
“जिस ज़मीन में हमारे बुज़ुर्ग सो रहे हैं, उसी ज़मीन पर हमें विदेशी कहा जा रहा है… यह दर्द शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता,” वे कहते हैं।

पीढ़ियों का इतिहास, फिर भी शक

कबीले ने अपने पूर्वजों—खुसयार खां, चुन्नी खां, गोदी खां और मुनीर खां—का पूरा वंशवृक्ष और मध्य प्रदेश के कई जिलों में अपने ठहराव का ब्यौरा प्रशासन को सौंपा है। साथ ही दमोह में जमीन के कागजात और वर्षों पुराने मुसाफरी रिकॉर्ड भी दिए गए हैं, ताकि यह साबित किया जा सके कि वे इसी देश की संतान हैं।

हमारा कसूर क्या है?”….

ज्ञापन में सबसे बड़ा सवाल यही है—“अगर हम भारतीय नहीं हैं, तो फिर कौन हैं?”
कबीले के लोगों का कहना है कि उन्हें रोहिंग्या और बांग्लादेशी कहकर अपमानित किया जा रहा है, जिससे बच्चों और महिलाओं में डर बैठ गया है। वे शासन-प्रशासन से सिर्फ इतना चाहते हैं कि उन्हें इंसान समझा जाए, सुरक्षा दी जाए और रहने के लिए पट्टे दिए जाएं, ताकि वे सम्मान के साथ जी सकें।

संविधान पर भरोसा, इंसाफ की आस

घुमक्कड़ कबीले ने जिला कलेक्टर, जिला पुलिस अधीक्षक, मुख्यमंत्री, गृह मंत्री, डीजीपी, मानव अधिकार आयोग, माइनॉरिटी कमिश्नर सहित कई संवैधानिक संस्थाओं को भी अपनी पीड़ा से अवगत कराया है।
“हमें अपने संविधान पर भरोसा है,” अमूर खां कहते हैं, “बस इतना चाहते हैं कि हमारी पहचान छीनी न जाए।”

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