
ग़ज़ा (BAZ News Network)। इज़राइल के हमलों ने ग़ज़ा को बच्चों का कब्रिस्तान बना दिया है। फिलिस्तीनी स्वास्थ्य मंत्रालय की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले 700 दिनों में कम से कम 19,424 बच्चे शहीद हो चुके हैं। इसका मतलब है कि हर 52 मिनट में एक मासूम ज़िंदगी का दिया बुझा दिया गया। इन शहीद बच्चों में 1,000 से ज़्यादा शिशु ऐसे थे जो अपनी पहली सालगिरह तक नहीं पहुँचे।
संयुक्त राष्ट्र की चेतावनी सच साबित
संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेज़ ने 6 नवंबर 2023 को कहा था—
“ग़ज़ा बच्चों का कब्रिस्तान बन रहा है।”
आज, लगभग दो साल बाद, उनका यह बयान हक़ीक़त बन चुका है।
कोई जगह सुरक्षित नहीं: UNRWA
ग़ज़ा में बच्चों की मौतें कुल मौतों का 30 प्रतिशत हैं। संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी UNRWA ने कहा है कि ग़ज़ा में बच्चों के लिए कोई जगह सुरक्षित नहीं बची।
UN संचालित स्कूल, जो कभी तालीम की जगह थे, अब हज़ारों विस्थापित लोगों के लिए शरणस्थल बन चुके हैं।
UNICEF के आँकड़ों के मुताबिक, पिछले पाँच महीनों में ही इज़राइल की बमबारी में औसतन हर महीने 540 बच्चे मारे गए।

औरतें व बुज़ुर्ग भी निशाने पर
- महिलाएँ: 10,138 मौतें
- बुज़ुर्ग: 4,695 मौतें
- मर्द: 29,975 मौतें (46.7%)
ये आँकड़े साफ़ बताते हैं कि ग़ज़ा की आबादी का कोई तबक़ा सुरक्षित नहीं है।
“यह बच्चों की तक़लीफ़ इत्तेफ़ाक़ नहीं” – यूनिसेफ़
UNICEF की कम्युनिकेशन मैनेजर टेस इंग्राम ने कहा:
“ग़ज़ा के बच्चों की तक़लीफ़ कोई हादसा नहीं है। भूख और कुपोषण उनके जिस्म को कमजोर कर रहे हैं, बेघर होने से उनका सहारा छिन रहा है, और बमबारी उनकी हर हरकत को मौत में बदल रही है।”
अब तक 134 बच्चे और शिशु भूख व कुपोषण से मर चुके हैं, क्योंकि इज़राइल लगातार ग़ज़ा में खाने-पीने का सामान, दवा और ईंधन की सप्लाई रोक रहा है।
ज़िंदगी की पहली साँस पूरी न कर सके बच्चे
फिलिस्तीनी स्वास्थ्य मंत्रालय का कहना है कि सिर्फ़ जुलाई तक 900 से ज़्यादा बच्चे अपनी पहली सालगिरह से पहले ही मारे जा चुके थे।
- कुछ अपने बिस्तर पर सोते-सोते,
- कुछ खेलते-खेलते,
- और कुछ अपने पहले क़दम रखने से पहले ही कफ़न में लिपटे।
“हर दिन एक पूरा क्लासरूम शहीद”
UNICEF की कार्यकारी निदेशक कैथरीन रसेल ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में कहा:
“सोचिए, लगभग दो साल से हर दिन एक पूरा क्लासरूम बच्चों का मारा गया है। यह इंसानियत पर हमला है, जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।”
ग़ज़ा: मासूमों की दबी हुई चीख़ें
यह रिपोर्ट सिर्फ़ आँकड़े नहीं, बल्कि उन मासूम जिंदगियों का सबूत है जिनकी हँसी अब मलबों में दफ़न हो चुकी है। ग़ज़ा की सड़कों पर बिखरे खिलौने, खून में लथपथ स्कूल बैग और ढही हुई इमारतों के नीचे दबे मासूम शरीर, इंसानियत से सवाल कर रहे हैं—
क्या बच्चों का खून भी राजनीति का हिस्सा बन चुका है?