
वाइज़-ए-क़ौम की वो पुख़्ता-ख़याली न रही
बर्क़-ए-तबई न रही शोला-मक़ाली न रही
रह गई रस्म-ए-अज़ाँ रूह-ए-बिलाली न रही
फ़ल्सफ़ा रह गया तल्क़ीन-ए-ग़ज़ाली न रही
मस्जिदें मर्सियाँ-ख़्वाँ हैं कि नमाज़ी न रहे
यानी वो साहिब-ए-औसाफ़-ए-हिजाज़ी न रहे
— अल्लामा इक़बाल
जबलपुर। जुमे को हुये विवाद के बाद अंसार नगर नमाज गाह अहले सुन्नत को सील किया गया था. शनिवार को दोनों पक्षों के बीच बने समझौते – समन्वय के बाद मस्जिद का ताला प्रशासनिक अधिकारियों ने खोल दिया और मस्जिद, असर की नमाज से दोबारा नमाज शुरु हो गई।
दोनों पक्षों के बीच आपसी सहमति बनने के बाद ऐलान इरशाद फरमाते हजरत मुफ्ती ए आजम मौलाना मुशाहिद रजा कादरी दामत बरकातुहु
मस्जिद का ताला खुलवाते मुस्लिम समाज के जन प्रतिनिधि

ताला खुलने के बाद असर की नमाज अदा करके निकलते नमाज़ी

मस्जिद में ताला नहीं लगना चाहिए था
अंसार नगर नमाज गाह अहले सुन्नत में बीते दिनों जो कुछ घटित हुआ, उसे अगर सिर्फ तीन शब्दों में बयान किया जाए तो वे हैं — दर्दनाक, शर्मनाक और खौफनाक।
- दर्दनाक इसलिए कि अल्लाह के घर पर ताला लगा दिया गया।
- शर्मनाक इसलिए कि यह सब किसी बाहरी साज़िश या दबाव का नतीजा नहीं, बल्कि मुसलमानों की आपसी जिद, अहं और टकराव की वजह से हुआ।
- खौफनाक इसलिए कि अगर मस्जिदों में आपसी विवाद की आड़ में प्रशासनिक तालाबंदी की यह परंपरा चल निकली, तो आने वाले समय में कितनी मस्जिदें इसकी जद में आ जाएंगी, इसका अंदाज़ा भी लगाना मुश्किल है।
आज यह सवाल बहुत पीछे छूट चुका है कि इस पूरे घटनाक्रम का दोषी कौन है। हर मुसलमान के दिल में अब सिर्फ एक ही टीस है — मस्जिद में ताला नहीं लगना चाहिए था। कोई भी वजह इतनी बड़ी नहीं हो सकती कि अज़ान और नमाज़ को रोक दिया जाए, कि अल्लाह के घर के दरवाज़े बंद कर दिए जाएं।
क्या है पूरा मामला
दरअसल, हज़रत मौलवी रियाज़ आलम साहब लंबे समय से अंसार नगर अहले सुन्नत नमाज़गाह में इमामत करते आ रहे थे। हर मकतब-ए-फ़िक्र के लोग उनके पीछे इज़्ज़त और फख्र के साथ नमाज़ अदा करते रहे। आप बीते कई महीनों से गंभीर बीमारी से जूझ रहे हैं। इलाज और स्वास्थ्य कारणों के चलते आपने अस्थायी रूप से इमामत से खुद को अलग किया।
इसके बाद मस्जिद कमेटी द्वारा नए इमाम की नियुक्ति की गई। यहीं से विवाद ने जन्म लिया।
यहां एक पक्ष का आरोप था कि जो नाम नये इमाम के लिये हजरत मौलवी रियाज आलम ने तजवीज किये, कमेटी ने उनमें से इमाम चुनने के बजाए अपनी मर्जी के इमाम को चुना. वहीं दूसरे पक्ष का कहना है की इत्तेफाक राय से कमेटी को मुकामी लोगों ने चुना है, कमेटी को इख्तियार है की वो इमाम चुन सकती है.
एक जुमे को मामला बिगड़ा जरूर, लेकिन किसी तरह संभाल लिया गया।
फिर कल 19 दिसंबर को जुमे के दिन विवाद ने गंभीर रूप ले लिया। हालात इतने बिगड़े कि तीन थानों का पुलिस बल मौके पर बुलाना पड़ा। मौके पर पहुंचे पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों ने आखिरी समय तक समझाइश और समन्वय की कोशिश की, लेकिन दोनों पक्ष अपनी-अपनी जिद पर अड़े रहे। अंततः स्थिति को काबू में रखने के लिए एसडीएम ने मस्जिद को सील करने का आदेश दिया।

माँ को जेल में बंद करने जैसी मिसाल
अंसार नगर नमाज़गाह की इस घटना को अगर एक मिसाल में समझा जाए तो तस्वीर कुछ यूं बनती है —
“माँ किस बेटे के साथ रहेगी, यह तय न कर पाने वाले दो भाइयों ने आपसी जिद में माँ को ही जेल में बंद कर दिया।”
यहां माँ से मुराद मस्जिद है, जो किसी एक की नहीं बल्कि पूरे समाज की अमानत है। लेकिन इमामत और मसलकी मतभेद की जिद में सबसे ज्यादा जुल्म उसी मासूम मस्जिद पर हुआ।

नमाज़ें रुकीं, मोहल्ले में पसरा सन्नाटा
जुमे के दिन विवाद के बाद अंसार नगर नमाज़गाह में ताला लग गया। असर, मगरिब और ईशा की नमाज़ नहीं हो सकी। शनिवार को भी फज्र और ज़ोहर तक मस्जिद बंद रही। कई वक़्तों तक अज़ान की आवाज़ थमी रही और पूरा इलाका सन्नाटे और अफसोस में डूबा रहा।
सुलह की पहल और मस्जिद का खुलना
प्रशासन का रुख शुरू से साफ रहा। अधिकारियों ने स्पष्ट किया कि खून-खराबे की आशंका को देखते हुए मस्जिद सील की गई है, और जैसे ही दोनों पक्ष आपसी सहमति बनाकर लिखित रूप में देंगे, मस्जिद खोल दी जाएगी।
शनिवार देर रात से वरिष्ठ कांग्रेस नेता हाजी कदीर सोनी और समाजसेवी सरदार हामिद हसन की कयादत, याकूब अंसारी एवं अशरफ मंसूरी के संयोजन में बैठकों का दौर चला। आखिरकार दोनों पक्ष इस बात पर सहमत हुए कि फिलहाल मस्जिद के मौज़्ज़िन साहब ही नमाज़ पढ़ाएंगे, ताकि विवाद से बचा जा सके। इसके बाद दोनों पक्षों ने एसडीएम को लिखित सहमति सौंपी।
लिखित सहमति मिलते ही प्रशासन ने मुस्लिम समाज के जनप्रतिनिधियों की मौजूदगी में शनिवार शाम मस्जिद से सील हटवा दी। ताला खोला गया और असर की नमाज़ अदा की गई। लंबे सन्नाटे के बाद जब “हय्या अलस्सलाह” की सदा गूंजी, तो नमाज़ियों की आंखें भर आईं।
अब क्या रास्ता हो?
यह पूरा मामला पूरे मुस्लिम समाज के लिए गौर फिक्र और इज्तिमाई एहतेसाब का मौका है।
अब वक्त है —
- अल्लाह से इज्तिमाई माफी मांगने का, कि हमारी वजह से उसका घर कुछ वक्त के लिए वीरान हुआ।
- अपनी अपनी गलतियों को पहचानने और दिलों को खोलने का, ताकि यह शर्मनाक दिन किसी दूसरी मस्जिद में न दोहराया जाए।
- इबादतगाहों के मामले आपसी समन्वय और समझदारी से सुलझाने का।
क्योंकि अगर ऐसे मामलों में प्रशासनिक हस्तक्षेप की नौबात आती रही और मस्जिदों में ताले लगने लगे, तो यह एक खतरनाक प्रशासनिक परम्परा बन सकती है। जिसका असर भविष्य में दूसरी इबादतगाहों पर भी पड़ सकता है।
राहत के साथ चेतावनी
मस्जिद का खुलना नमाज़ियों के लिए राहत की खबर जरूर है, लेकिन यह राहत अपने साथ एक सख्त चेतावनी भी लाती है।
अगर आज हमने सबक नहीं लिया, तो कल किसी और मस्जिद में वही ताला, वही सन्नाटा और वही दर्द दोहराया जा सकता है।
मस्जिदें ताले के लिए नहीं, सजदों के लिए होती हैं।
और उन्हें आबाद रखना पूरे समाज की साझा जिम्मेदारी है —
न कि अपनी जिद की भेंट चढ़ा देना।



