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फ्रांस का बड़ा बयान: “फिलिस्तीन को मान्यता देना सिर्फ नैतिक कर्तव्य नहीं, राजनीतिक ज़रूरत भी है” — राष्ट्रपति मैक्रों

ग़ज़ा में इसराईली बर्बरता ने हालात को बेहद ख़तरनाक बना दिया है। भूख, प्यास और बमबारी के बीच तड़पते फ़िलिस्तीनियों की हालत ने पूरी दुनिया का ज़मीर झकझोर कर रख दिया है। ऐसे में यूरोप की कई सरकारों ने अब अपनी ज़िम्मेदारी महसूस करनी शुरू कर दी है।

स्पेन की مضبوط पहल के बाद अब फ्रांस ने भी ग़ज़ा की स्थिति पर कड़ा रुख अपनाया हैफ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने साफ़ कहा है कि,

“अगर पश्चिम (वेस्ट) ग़ज़ा को यूं ही छोड़ देता है और इसराईल को मनमानी करने देता है, तो उसे अपनी वैश्विक साख खोने का ख़तरा है।”

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🔴 मैक्रों बोले – “दोहरा मापदंड अब नहीं चलेगा”

सिंगापुर में आयोजित ‘शांगरी-ला डायलॉग’ डिफेंस फोरम में बोलते हुए मैक्रों ने कहा कि

“हम दोहरे मापदंड को अस्वीकार करते हैं – यही सिद्धांत यूक्रेन युद्ध पर भी लागू होता है।”
उन्होंने न्याय और मानवता पर आधारित एक नए वैश्विक गठबंधन की ज़रूरत बताई और कहा कि अब शक्तिशाली देशों के दबाव को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

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🌍 “फिलिस्तीन को मान्यता देना अब राजनीतिक ज़रूरत है”

फ्रांसीसी राष्ट्रपति ने यह भी कहा कि

“फिलिस्तीन को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता देना सिर्फ नैतिक दायित्व नहीं, अब एक राजनीतिक अनिवार्यता बन चुका है।”
उन्होंने कुछ शर्तों के तहत फिलिस्तीन को मान्यता देने की बात कही, ताकि स्थायी शांति और न्याय की दिशा में आगे बढ़ा जा सके।


⚠️ यूरोप को अपना रवैया बदलना होगा – मैक्रों

सिंगापुर के प्रधानमंत्री लॉरेंस वोंग के साथ संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में मैक्रों ने ज़ोर देकर कहा:

“अगर इसराईल आने वाले घंटों और दिनों में ग़ज़ा में मानवीय हालात को सुधारने के लिए ठोस क़दम नहीं उठाता, तो यूरोप को चाहिए कि वह इसराईल के खिलाफ अपनी सामूहिक नीति को और कठोर करे।”


💬 “हमें आशा है कि इसराईल मानवता दिखाएगा”

राष्ट्रपति मैक्रों ने यह भी कहा कि उन्हें अब भी उम्मीद है कि इसराईली सरकार अपना रुख नरम करेगी और इंसानियत के नाते कोई संवेदनशील प्रतिक्रिया देगी


📌 बाज मीडिया का विश्लेषण:
फ्रांस जैसे प्रभावशाली देश का यह बयान निश्चित रूप से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ा मोड़ हो सकता है। अगर यूरोप में और भी देश फिलिस्तीन के समर्थन में खुलकर खड़े होते हैं, तो यह इसराईल पर दबाव बढ़ा सकता है और ग़ज़ा में हो रहे नरसंहार को रोकने की दिशा में निर्णायक साबित हो सकता है।

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