Special Report | अरब स्प्रिंग के 15 साल: ट्यूनीशिया के एक ठेलेवाले की बेइज़्ज़ती से उठी आग, जिसने पूरे अरब वर्ल्ड को हिला दिया — वो क्रांति जो फेल नहीं हुई, बल्कि गोली, कफ़न और टॉर्चर सेल में दबा दी गई

Special Report : ठीक 15 साल पहले, ट्यूनीशिया के एक छोटे से शहर सिदी बुज़ीद में फल-सब्ज़ी बेचने वाले मोहम्मद बौअज़ीज़ी ने जब प्रशासनिक ज़ुल्म और बेइज़्ज़ती से तंग आकर आत्मदाह किया, तब शायद किसी ने नहीं सोचा था कि यह घटना पूरे अरब वर्ल्ड को हिला कर रख देगी। लेकिन बौअज़ीज़ी की मौत सिर्फ़ एक व्यक्ति की त्रासदी नहीं बनी, बल्कि वह उस गुस्से और हताशा की चिंगारी बन गई, जो दशकों से अरब समाज के भीतर सुलग रही थी।
यहीं से शुरू हुआ वह ऐतिहासिक आंदोलन, जिसे दुनिया ने “अरब स्प्रिंग” के नाम से जाना।

जब सड़कों पर उतर आए लाखों लोग
अरब स्प्रिंग के दौरान ट्यूनीशिया से लेकर मिस्र, लीबिया, यमन, सीरिया, बहरीन और इराक तक लाखों लोग सड़कों पर उतर आए। नारे सिर्फ़ रोटी, रोज़गार या महंगाई के खिलाफ़ नहीं थे, बल्कि वे इज़्ज़त, जवाबदेही, आज़ादी और लोकतांत्रिक शासन की मांग कर रहे थे।
प्रदर्शनकारियों का सबसे बड़ा आरोप यह था कि अरब देशों में सत्ता बेहद केंद्रीकृत हो चुकी थी। भ्रष्टाचार आम बात थी, संसाधन कुछ परिवारों और सत्ता के करीबी लोगों तक सीमित थे और आम नागरिक को न तो न्याय मिलता था, न ही सुनवाई।

Tahreer Square, Egypt
यह कोई एक देश या एक सरकार के खिलाफ़ विद्रोह नहीं था, बल्कि पूरे अरब क्षेत्र में फैले उस सिस्टम के खिलाफ़ था, जो दशकों से तानाशाही पर टिका हुआ था।
सत्ता का जवाब: गोलियां, जेल और डर
जैसा कि अक्सर होता है, सरकारों ने इन आंदोलनों का जवाब बेहद सख़्ती से दिया।
कई देशों में प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलीं, हजारों लोग मारे गए, लाखों को जेलों में डाल दिया गया, और मीडिया पर पहरा बैठा दिया गया।

फिर भी, शुरुआती दौर में अरब स्प्रिंग को बड़ी कामयाबी मिली।
कुछ ही महीनों के भीतर चार ताक़तवर तानाशाह सत्ता से बेदखल हो गए:
- ट्यूनीशिया में ज़ीन अल-आबिदीन बेन अली
- मिस्र में होस्नी मुबारक
- लीबिया में मुअम्मर गद्दाफ़ी
- यमन में अली अब्दुल्ला सालेह
दूसरी ओर, बहरीन, अल्जीरिया और इराक जैसे देशों में विरोध प्रदर्शनों को शुरू में ही कुचल दिया गया।
सीरिया, लीबिया और यमन में यह आंदोलन लंबे और विनाशकारी गृहयुद्ध में बदल गया।
मिस्र और ट्यूनीशिया: उम्मीद की आख़िरी किरण
अरब स्प्रिंग के बाद सिर्फ़ मिस्र और ट्यूनीशिया ऐसे देश थे, जहां यह लगा कि लोकतांत्रिक बदलाव वास्तव में जड़ पकड़ सकता है।

दोनों देशों में:
- संविधान सभाएं बनीं
- नए संविधान लिखे गए
- नई राजनीतिक पार्टियां उभरीं
- अपेक्षाकृत स्वतंत्र चुनाव हुए
- मीडिया और सिविल सोसायटी को जगह मिली
खास बात यह रही कि दोनों ही देशों में मुस्लिम ब्रदरहुड से जुड़ी पार्टियां, जो लंबे समय से संगठित थीं, चुनावों में तेज़ी से उभरीं। कुछ विश्लेषकों ने इसे अरब राजनीति के “मध्यम इस्लामवादी” रुख के रूप में सकारात्मक माना, जबकि दूसरों ने इसे नई परेशानियों की शुरुआत बताया।
फिर भी, एक बात साफ़ थी—
इन दोनों देशों ने यह मिथक तोड़ दिया कि अरब समाज लोकतंत्र के लिए तैयार नहीं है। वोटिंग प्रतिशत कई पश्चिमी लोकतंत्रों के बराबर था, जो यह दिखाता है कि आम अरब नागरिक लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास रखता है।
मिस्र: जब ‘डीप स्टेट’ ने लोकतंत्र को कुचल दिया

मिस्र में लोकतंत्र का यह प्रयोग ज्यादा समय तक नहीं टिक सका।
असल सत्ता कभी भी पूरी तरह चुनी हुई सरकार के हाथ में नहीं आई। सेना, पुलिस, खुफिया एजेंसियां, न्यायपालिका और मीडिया—जिसे अक्सर “डीप स्टेट” कहा जाता है—ने पर्दे के पीछे से नियंत्रण बनाए रखा।
2013 में, मिस्र के पहले लोकतांत्रिक रूप से चुने गए राष्ट्रपति मोहम्मद मुर्सी को एक सैन्य तख्तापलट के ज़रिये हटा दिया गया।
इस तख्तापलट को कुछ लिबरल और इस्लाम विरोधी तबकों का समर्थन भी मिला, लेकिन नतीजा यह निकला कि देश फिर से तानाशाही की ओर लौट गया।
जनरल अब्देल फत्ताह अल-सिसी ने सत्ता संभालते ही:

- बड़े पैमाने पर हत्याएं और गिरफ्तारियां कीं
- राजनीतिक पार्टियों पर पाबंदी लगाई
- मीडिया को लगभग पूरी तरह नियंत्रित किया
- दिखावटी चुनाव कराए
- संविधान और क़ानूनों में ऐसे बदलाव किए, जिससे सत्ता हमेशा उनके हाथ में रहे
आज कई एक्सपर्ट मानते हैं कि अल-सिसी का शासन, होस्नी मुबारक से भी ज़्यादा सख़्त और दमनकारी है।
ट्यूनीशिया: जहां उम्मीद ने सबसे देर तक सांस ली
ट्यूनीशिया में लोकतंत्र की सांस मिस्र से कहीं ज्यादा लंबी चली।
2014 में देश ने एक प्रगतिशील नया संविधान अपनाया, जिसे अरब दुनिया में लोकतंत्र का सबसे बड़ा उदाहरण माना गया।
लेकिन समय के साथ आर्थिक संकट, राजनीतिक अस्थिरता, आपसी मतभेद और जनता की निराशा बढ़ती चली गई।
आख़िरकार, राष्ट्रपति क़ैस सईद ने संसद भंग की, सत्ता अपने हाथ में केंद्रित कर ली और लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर कर दिया।
आज, वही ट्यूनीशिया—जहां से अरब स्प्रिंग शुरू हुआ था—लोकतंत्र के गंभीर संकट से गुजर रहा है।
15 साल बाद सबक क्या है?
15 साल बाद यह साफ़ है कि:
- लोकतंत्र की मांग मरी नहीं है
- अरब समाज आज भी इज़्ज़त, जवाबदेही और भागीदारी चाहता है
- लेकिन तानाशाही सरकारें अब ज़्यादा चालाक, ज़्यादा संगठित और ज़्यादा निर्दयी हो चुकी हैं
अरब स्प्रिंग शायद अपने तत्काल लक्ष्यों में पूरी तरह सफल नहीं हुआ, लेकिन उसने यह हमेशा के लिए साबित कर दिया कि अरब जनता चुप रहने वाली नहीं है।
यह आंदोलन फेल नहीं हुआ—
बल्कि उसे कुचल दिया गया।

और इतिहास गवाह है,
जब मांग ज़िंदा रहती है, तो विद्रोह भी किसी न किसी रूप में लौटता है।



