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देश में आस्था के नाम पर मजाक जारी: अब अजमेर के ‘अढ़ाई दिन के झोपड़े’ पर दावा, नमाज पर पाबंदी की मांग

अजमेर: अजमेर दरगाह के मामले के बाद अब एक और धार्मिक स्थल, अढ़ाई दिन के झोपड़े, को लेकर विवाद गहरा गया है। यह मसला हाल ही में हिंदू और जैन समुदाय के बीच तीव्र हो गया है, जब जैन संतों और कुछ अन्य व्यक्तियों ने यहाँ नमाज पढ़ने पर विरोध जताया। दावा किया गया है की चूंकि मस्जिद में बहुत कुछ देखने में जैन वास्तू कला जैसा लगता है इसलिए यह मंदिर है. यहाँ नमाज़ पर पाबन्दी लगा देनी चाहिए।

अढ़ाई दिन के झोपड़े का विवाद तब शुरू हुआ, जब एक जैन साधु इस प्राचीन स्थल को देखने के लिए गए और और उनको महसूस हुआ की चूंकि मस्जिद में बहुत कुछ देखने में जैन वास्तू कला जैसा लगता है इसलिए यह मंदिर है. यहाँ नमाज़ पर पाबन्दी लगा देनी चाहिए।

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इसके बाद यह मुद्दा बढ़ता गया, क्योंकि अढ़ाई दिन का झोपड़ा एक प्रमुख पर्यटन स्थल है, जिसकी देखरेख भारतीय पुरातत्व विभाग (ASI) द्वारा की जाती है। इस घटना के बाद जैन समुदाय ने प्रशासन से आपत्ति जताई, जिसके बाद विवाद ने और तूल पकड़ा।

नगर निगम डिप्टी मेयर का बयान
अजमेर नगर निगम के डिप्टी मेयर, नीरज जैन ने दावा ठोंका है कि अढ़ाई दिन का झोपड़ा पहले एक जैन मंदिर था और यहां एक संस्कृत विद्यालय भी हुआ करता था। जैन महाराज सुनील सागर जी ने भी इस बात के प्रमाण दिए हैं। नीरज जैन ने राज्य और केंद्र सरकार से मांग की कि इस स्थल का पुनः सर्वेक्षण कर इसे उसके ऐतिहासिक रूप में बहाल किया जाए। उन्होंने यह भी कहा कि समुदाय विशेष द्वारा यहां की जा रही धार्मिक गतिविधियों को रोकने की आवश्यकता है, क्योंकि यह अतिक्रमण और अनैतिक कार्यों के रूप में देखा जा रहा है।

इतिहास: अढ़ाई दिन का झोपड़ा
अढ़ाई दिन का झोपड़ा, जो मस्जिद है, 1192 ईस्वी में अफगान सेनापति मोहम्मद गोरी के आदेश पर कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा बनवाया गया था।

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अढ़ाई दिन के झोपड़े का नाम इससे जुड़ी एक रोचक कथा से लिया गया है। यह माना जाता है कि मोहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान को हराने के बाद अजमेर से गुजरते हुए वास्तुशिल्प की दृष्टि से अत्यधिक प्रभावशाली पाया। गोरी ने अपने सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक को आदेश दिया कि इस स्थान पर मस्जिद बनाई जाए और इसके लिए उन्हें 60 घंटों का समय दिया गया। इतिहासकारों के अनुसार, इस मस्जिद का डिज़ाइन हेरात के एक वास्तुविद अबु बकर ने तैयार किया था और इसे बनाने का कार्य श्रमिकों ने बिना रुके 60 घंटों में पूरा किया।

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